Wednesday, December 12, 2007

मेरा वो गुमशुदा अरमान

के मैं मासूम सा अरमान फिसल जाता हूँ


हाँ मेरा घर है ये इंसान
जो यूं है तो बुद्धिमान पर...
रहता परेशान मेरा
रखता नहीं ध्यान निकल जाता हूँ


इसका दिमाग जाल बड़ा
ढेरों बत्तियों से भरा
ये जले कभी वो कभी अँधेरा हो शैतां
मैं संभल जाता हूँ


मैं नहीं मर जाऊँ कहीं
चाहे ये समझे या नहीं
मेरे बिना मुर्दा है मैं गर हूँ तो इसमें जान
ना समझेगा ये नादां मैं निकल जाता हूँ


यूँ तो ज़िंदगी मुश्किल है के जी पाना भी मंजिल है
मगर खो ना जाना आदतों में रात दिन इबादतों में
सीने में जो दिल है
वो पुकारता मुझे मैं मचल जाता हूँ


के मुझे थाम ले इन्सां
मैं तेरा एक ही अरमान
मुझे पूरा कर दे यूं के
ये दुनिया भी हो हैरान यही चाहता हूँ

5 comments:

  1. How come no one has left a comment extolling this poem? I could read it again, and again, and still marvel at how you arrive at such incredibly beautiful words.

    Great stuff!

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  2. am so glad finally I have your blog link. And this poem, oh! this poem! I will read it again and again until I memorize it. And then I will sing it again and again to myself and to the world.
    @saumya di- either everyone doesn't understand the magic of bhaiya's words or they lack words to make a comment.
    ye toh maine save karliya forever and ever!

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  3. finally !! i found this poem here 1
    I love it from the day i heard the title ..

    bookmarked to read daily :D

    ~ Pratibha

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  4. you are far too kind, all of you :p

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  5. anup bhaiya..mera naman hai apko.._/\_

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